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फिल्मोमें गाने : हमारी एक अलग पहेचान
अक्सर यह सुना गया है कि हिंदी फिल्मोमे गाने अवास्तविक लगते है. प्रायः इस प्रकारकी टिपण्णी करने वाला वर्ग अपने आपको बुद्धिजीवी मानने वाला अंग्रेजी शिक्षण प्राप्त अधेड़ोंका होता है. हमारे लाजवाब दिग्दर्शक जैसे मुर्ख हो इस प्रकारसे ये लोग बात करते है. मुझे हमेशा ऐसे लोगोंकी बातें सुनकर हसी आती है. क्यूंकि ये वो लोग है जो फिल्म या साहित्य को स्वस्फुरित प्रज्ञा से नहीं समज पाते, उन्हें आवश्यकता होती है पश्चिमी ट्रेंड की. ऐसे लोग अधिकतर अरसिक होते है.
अक्सर लोग वास्तविकता का हवाला देते है. एक बार मेरी एक सज्जन से इसी बात पर चर्चा हुई. यह सज्जन स्वयं एक चित्रकार थे. और पिकासो के न सिर्फ आशिक थे बल्कि उन्ही की तर्ज पर चित्र बनाकर खूब पैसा भी कमाते थे. मेरी उनसे मुलाकात एक पार्टी में हो गई. उन्होंने व्ही वास्तविकता का राग आलापना प्रारंभ किया. मैंने मुस्कुराकर उनसे कहा, “भाई साहब, आपको फिल्म देखना नहीं आता.” वो चौंके. बोले “क्या कहेना चाहते है आप?” मैंने कहा, “बहोत स्पष्ट कहा मैंने आपको कि आपको फिल्म देखना नहीं आता.” “अरे ऐसा कैसे हो सकता है?” मेरे ये कलाकार मित्र बोले. मैं फिर मुस्कुराया और मैंने कहा, “आप जो चित्रकारी करते है वह कला कितनी पुरानी है?” तो वो बोले, “चित्रकारी तो मानव संस्कृतिकी पहेचान है. आदमी जब गुफाओंमें रहता था तभी से चित्र बनाता है.” मैंने कहा, “इसका मतलब यह हुआ कि यह एक अति प्राचीन कला है.” तो उन्होंने गर्व से हां कहे दिया. मैंने उनसे कहा, “मुझे पिकासो अच्छा नहीं लगता. बड़ा ही बे सर पैर का चित्रकार रहा है. उसकी कृतियों में कोइ भी चीज़ सही ठिकाने पर नहीं होती है.” अब मेरे वह चित्रकार मित्र भड़क गए. क्योंकि बात बात में मैंने उनकी रोज़ी पर लात मार दी थी. पार्टी में उपस्थित अन्य सज्जन भी हम दोनोकी बातमें दिलचस्पी दिखाने लगे थे. ऐसी पार्टीयाँ ही मेरे चित्रकार मित्र का मार्केटिंग इवेंट होता था. और मैंने वहीँ उनके आराध्य चित्रकारकी आलोचना की थी. वे स्वयं भी पिकासोकी शैली में चित्रकारी करके नाम और दाम कमाते थे. उन्होंने मुजसे कहा,”पिकासो को समजना आसान नहीं. उसके लिए चित्र कला का विशद ज्ञान चाहिए.” मैंने कहा, “अच्छा?! आपने ही तो थोड़ी देर पहेले कहा कि आदमी जब गुफाओंमे रहेता था तबसे चित्रकारी कर रहा है. अब जो कला हजारों बरस से चली आ रही है उसे समजने के लिए विशद ज्ञान चाहिए और बीसवी शताब्दी में आई हुई फिल्म मेकिंगकी कला समजने के लिए किसी प्रकारके प्रशिक्षण या ज्ञानकी आवश्यकता नहीं?!”
अक्सर कहा जाता है कि हमारे सिनेमा अवास्तविक होते है. किन्तु कलात्मक प्रस्तुतिकी अपनी एक वास्तविकता होती है जिसके ऊपर उसे प्रस्तुत करने वाले कलाकार का पूर्ण अधिकार होता है. यदि कोई चित्रकार आड़े तेडे अंग अपने चित्रमें दिखाए तो उसकी आलोचना नहीं की जाती है क्यूंकि एक अंदरूनी अहम् होता है, खुद को बुद्धिशाली साबित करनेकी चाह होती है.किन्तु यदि फिल्मोमे जज्बात प्रस्तुत करनेके लिए यदि दिग्दर्शक कोई काल्पनिक छुट लेता है तो वस्ताविकताका हवाला दिया जाता है, दिग्दर्शक का दृष्टी कोण समजने की कोई आवश्यकता नहीं समजी जाती.
हमारी हिन्दू संस्कृतिमे गीत हर कदम पर बुने गए है. टॉकी सिनेमा के प्रारंभ से भारतीय फिल्म मेकर्स ने अपनी फिल्मो में गानों को स्थान दिया है. वास्तव में गाने फिल्मकी हाई लाइट होते है. हमारे जीवनके हर पहेलुके साथ गायन जुड़ा हुआ है. हमारे दर्शकोंने शुरूसे ही गानोंको सराहा है और पसंद किया है. यदि फिल्मोके आगमनसे पहेले जो मनोरंजन एवं सन्देश के माध्यम रहे है उनको यदि देखा जाय तो मेरी बात सरलतासे समजमें आएगी. याद कीजिये हमारी पुरानी रंग भूमी को. नाटकमें भी गाने होते थे. इतना ही नहीं बल्कि संवादभी काव्यात्मक शैलीमे लिखे और बोले जाते थे. हमारा नाट्य शास्त्र जो कदाचित विश्व का प्राचीनतम नाट्य शास्त्र है “भरत नाट्यम”, क्या संगीत और गायन के बगैर संभव है? संगीत तो हम भारतीयोंकी रगोंमें है.
हमारे धर्मं ग्रन्थ छंदोंमें रचे गए है. वे गाये जाते है. गीत और संगीत तो हम भारत वासीयोंकी पहेचान है. यदि आप गौर करेंगे तो मालूम पड़ेगा कि फिल्मोके गनोके साथ आपके जीवनके कोई न कोई लम्हे जुड़े होते है. कोई गाना बचपन यद् दिलाता है तो कोई गाना पहेले प्यारके उन नाज़ुक लम्होको जीवंत करता है जिसे बीते कई साल गुज़र गए. कोई गाना आपके होटों पर समस्यओंके बिचमें भी मुस्कराहट ला देता है तो कोई गाना जीवनको दोबारा संवारनेका जोश देता है. फिल्मोमे गाने हमारी विशेषता है.
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